Sunday 18 November 2012

Craving...

एक छोटी सी ललकार और,
धीमी सी पूछ कही से निकली, और रात की चिंगारी जाग रही थी।
कही हवस के दिए जल रहे थे ,
और कही रोहिणी बिना आहट - चाँद संग रात्रि का नज़ारा बन चुकी थी।
फिर भी ये भीगी, इस भूख को कौन काबू करे ?                      1)

 नादानी और मासूमियत बिस्तर में नंगी बनती है,
जिसका कोई ज्ञान न हो -
उसपे पिचकारियाँ चलती है।
फटे कपडे, दुखते अंग और शर्म से सिकुड़े अवशेष,..
कोई जानवर भी ये देख ज़मीन में गढ़ जाए
बहोत हद्द पार ये समाज सभ्यता फेल चुकी है।                         2)


आज आदमी आम हो चूका है,
और सारी  क्रीडाए भी हवस की तरह,...आम फेल चुकी है।
नंगा ताण्डव लालच का हर मुह से टपक रहा है,
ये जगत फेला रहा है अँधेरा,.....और
कुछ धुआ सा नशा सब पे छा चुका है।
हरकतों पे काबू पाना मुश्किल है, और बस  सारे पहिये नीचे ही घूमते है।
काश अभी सभ्यता जिंदा होती।                                                  3) 

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